Tuesday, 22 October 2024

..और सुभाष के अनुगामी बन गए दियरा के शाही

योगेंद्र प्रताप शाही..। ये वो शख्स हैं जो गुलामी के दिनों में ब्रिटिश फौज में अफसर थे। अंग्रेज परस्त दियरा राजपरिवार से ताल्लुक रखते थे। ..नेताजी और उनकी आजाद फौज से कुछ यूं प्रभावित हुए कि उन पर देश भक्ति का ऐसा जुनून चढ़ा कि सबकुछ छोड़-छाड़ नेताजी के अनुगामी बन गए। सन् 1857 की जंग-ए-आजादी में दियरा रियासत को अंग्रेज परस्त माना जाता था। हालांकि अपने कुलीन एवं अभिजात्य संस्कारों की वजह से यह रियासत और इस रजवाड़े के लोग सूबे में अपनी पहचान कायम किए। इन्हीं में से एक थे योगेंद्र प्रताप शाही, जो कि दियरा रियासत के प्रबंधक कुंवर कौशलेंद्र प्रताप शाही के पुत्र थे। पढ़ाई-लिखाई के बाद वे ब्रिटिश फौज में शामिल हो गए। उन्होंने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश फौज की ओर से जंग भी लड़ी। ये दौर अभी चल ही रहा था कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भी सक्रिय राजनीति छोड़ कांग्रेस से इस्तीफा देकर देश को आजादी दिलाने के लिए सशस्त्र क्रांति का बिगुल बजा दिया। नेताजी के इस अंदाज से शाही यूं प्रभावित हुए कि उन्होंने ब्रिटिश वर्दी उतारकर बगावत कर दी।..और सुभाष के अनुगामी बन गए। नेताजी ने उनकी हिम्मत की दाद दी और आजाद हिन्द फौज की प्रचार शाखा आजाद हिन्द रेडियो की कमान उन्हें सौंप दी। फौज से संबंधित बुलेटिन प्रसारित करने का दायित्व शाही को मिला। 'ये आजाद हिन्द रेडियो है अब वाईपी शाही से बुलेटिन सुनिए' ये शब्द उस वक्त रेडियो में गूंजते थे। आजादी मिलने के बाद लंबा वक्त शाही ने एकाकी ही राजधानी लखनऊ के अपने हैदराबाद कालोनी में ही गुजारा। वे अच्छे संगीतज्ञ और विचारक भी थे। सन् 2011 में उन्होंने अंतिम सांस ली। उनके पौत्र अभिषेक शाही बताते हैं कि बाबा जी ने कभी खुद को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में प्रस्तुत ही नहीं किया। वे कभी भी प्रचार माध्यमों में नहीं आना चाहते थे। हालांकि राजेश्वर सिंह लिखित 'सुलतानपुर का इतिहास' पुस्तक में उनके योगदान का भरपूर जिक्र मिलता है।

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