Tuesday, 8 March 2022

*सुलतानपुर जिले के दियरा राजघराने पर रख दृष्टि*

मोतिगरपुर। आदिगंगा गोमती के किनारे की भूमि पर अधिपतियों की एक और महत्वपूर्ण शाखा राज साह का घराना था। राज साह के तीन बेटे, ईश्री सिंह, चक्रसेन सिंह और रुप चंद थे। ईश्री सिंह से नौ पीढ़ियों के बाद विजय चंद हुए, जिनके तीन बेटे थे। हरकरन देव, जीत राय और जिव नारायन। हरकरन देव नानेमाऊ तालुकदार के पूर्वज थे, जीत राय के वंशज मेवपुर दहला, मेवपुर धौरुआ और भदैया के मालिक थे, और जिव नारायन के उत्तराधिकारी दियरा के राजा थे। जिव नारायन के चौथे वंशज ने गोमती के किनारे राजाओं के छः उपनिवेशों में से पहले का नेतृत्व किया और नदी के तट पर दियरा में खुद को स्थापित किया। यह घराना सुलतानपुर के बचगोटीस की मुख्य शाखाओं में से एक बन गया।
उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में बाबू माधो सिंह, जिव नारायन के वंशज में ग्यारहवें स्थान पर, जिस संपत्ति के शासक थे उसमें 101 गांव शामिल थे। बाबू माधोसिंह को एक सफल राजा के रूप में याद किया जाता है। जिन्होंने अपनी संपत्ति का सफल प्रबंधन किया। वर्ष1823 में बाबू माधोसिंह की मृत्यु हो गई। उनकी विधवा ठकुराईन दारियाव कुंवर, एक चर्चित महिला थी जिन्होंने कष्ट और उथलपुथल के वाबजूद न केवल बहादुरी से अपना खुद का प्रबंध किया बल्कि उन्होंने अपने पति की तुलना में अपने जीवनकाल में और  राज्य का विस्तार करने के साथ सम्पति को बढ़ाया भी। उत्तराधिकार की सीधी रेखा ठकुराईन के पति बाबू माधोसिंह की मौत के साथ खत्म हो गई थी। राज्य अगला पुरुष उत्तराधिकारी बाबू रुस्तम साह था, जिसे ठकुराईन नापसंद करती थी। बाबू रुस्तम साह उस समय के नाजीम महाराजा मानसिंह की सेवा में था और ठकुराईन को पकड़ने में उनकी मदद की। दबाव के चलते ठकुराईन को उनके पक्ष में एक समझौता लिखना पड़ा। स्वाभिमानी महिला ठकुराइन दरियाव कुंवर इस बात से काफी दुखी हुई और कुछ  ही महीनों बाद उनकी मृत्यु हो गई। रुस्तम साह को नाजिम द्वारा संपत्ति का अधिकार दिया गया था। रुस्तम साह को बाद में पता चला कि नाजिम की सहायत किये जाने में उनके इरादे ठीक नहीं थे। एक युद्ध के दौरान रुस्तम नाजिम को मारने वाला था कि एक पंडित की सलाह पर कि समय शुभ नहीं है रुस्तम ने नाजिम को छोड़ दिया। बाद में रुस्तम साह ने ब्रिटिश सीमा पर शरण मांगी और उन्हें दियरा का तालुकदार बनाया गया जिसमें 336 गांव शामिल थे। रुस्तम साह ने अंग्रेजों से विद्रोह के दौरान उनको उत्कृष्ट सेवा प्रदान की थी। वर्ष1877 में रुस्तम साह का निधन होने के बाद उनके भतीजे राजा रुद्र प्रताप सिंह ने उनका स्थान लिया। जो दियरा स्टेट के अंतिम शासक हुए। (सुलतानपुर गजेटियर से..)

दियरा स्टेट का नेपाल राजघराने से रहा है गहरा रिश्ता....

नेपाल के राजघराने शाहवंश ने सुल्तानपुर की दियरा स्टेट में अपनी बेटी ब्याही थी। पूर्व में नेपाल के प्रधानमंत्री रहे व राणा राजवंश के संस्थापक की प्रपौत्री की शादी दियरा राजघराने में हुई है। नेपाल में जंग बहादुर राणा ने राणा राजवंश की स्थापना की थी। बाद में शाह वंश (मौजूदा राजवंश) के बीच हुई तकरार में जंग बहादुर राणा को नेपाल में सरकार संचालन का दायित्व मिला। वह वर्ष 1860 के करीब नेपाल के पीएम बने। शाह वंश को बंटवारे में राजवंश मिला था। भारत व नेपाल के राजघराने व सरकार में रिश्ते की डोर यहीं से शुरू हुई। नेपाल के पूर्व पीएम व राणा राजवंश के संस्थापक जंग बहादुर राणा ने अपनी तीन पौत्रियों की शादी भारत के राजघरानों में कराई। इसमें एक नैनीताल में दान सिंह बिष्ट, दूसरी सिरवारा में बाबू भीम सिंह व तीसरी बलरामपुर राजघराने में हुई थी।
सिरवारा में ब्याही उनकी पौत्री महारानी लक्ष्मी मिट्ठू मइया रानी की पुत्री इंदुबाला शाही की शादी सुल्तानपुर के दियरा राजवंश के मत्स्येंद्र प्रताप शाही के साथ हुई। तब से दियरा स्टेट से नेपाल के राणा वंश में रिश्तों की डोर बंधी चली आ रही है। मत्स्येंद्र प्रताप शाही बताते हैं कि राणावंश के अंतिम प्रधानमंत्री महाराज मोहन शमशेर सिंह राणा रहे।
नेपाल के राणा वंश से ही दियरा स्टेट का रिश्ता नहीं रहा बल्कि बंटवारे में शाह वंश के हाथों गये राजंवश से भी दियरा स्टेट का बेटी-दामाद का संबंध रहा। दियरा स्टेट के राजा कौशलेंद्र प्रताप शाही (बब्बन महराज) के सात पुत्रों में दूसरे नंबर के पुत्र योगेंद्र प्रताप शाही की शादी नेपाल के मौजूदा राजवंश (शाहवंश) में हुई थी। नेपाल के शाह वंश की पुत्री प्रेम राज राजेश्वरी का विवाह योगेंद्र प्रताप शाही के साथ हुआ था। हालांकि योगेंद्र प्रताप शाही की कोई संतान नहीं थी। नेपाल में शाहवंश (राजवंश) में संबंध होने की वजह से दियरा स्टेट का लगाव आज भी वहां से है।

.. जब सुभाषचंद्र बोस का अनुगामी बन गया दियरा का शाही खून  

योगेंद्र प्रताप शाही..। ये वो शख्स हैं जो गुलामी के दिनों में ब्रिटिश फौज में अफसर थे। अंग्रेज परस्त दियरा राजपरिवार से ताल्लुक रखते थे। ..नेताजी और उनकी आजाद हिन्द फौज से कुछ यूं प्रभावित हुए कि उन पर देश भक्ति का ऐसा जुनून चढ़ा कि सबकुछ छोड़-छाड़ नेताजी के अनुगामी बन गए। सन् 1857 की जंग-ए-आजादी में दियरा रियासत को अंग्रेज परस्त माना जाता था। हालांकि अपने कुलीन एवं अभिजात्य संस्कारों की वजह से यह रियासत और इस रजवाड़े के लोगों ने सूबे में अपनी अलग पहचान कायम की। इन्हीं में से एक थे योगेंद्र प्रताप शाही। जो कि दियरा रियासत के प्रबंधक कुंवर कौशलेंद्र प्रताप शाही के पुत्र थे।पढ़ाई-लिखाई के बाद वे ब्रिटिश फौज में शामिल हो गए। उन्होंने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश फौज की ओर से जंग भी लड़ी। ये दौर अभी चल ही रहा था कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भी सक्रिय राजनीति छोड़ कांग्रेस से इस्तीफा देकर देश को आजादी दिलाने के लिए सशस्त्र क्रांति का बिगुल बजा दिया। नेताजी के इस अंदाज से शाही यूं प्रभावित हुए कि उन्होंने ब्रिटिश वर्दी उतारकर बगावत कर दी।..और सुभाष के अनुगामी बन गए। नेताजी ने उनकी हिम्मत को दाद दी और आजाद हिन्द फौज की प्रचार शाखा आजाद हिन्द रेडियो की कमान उन्हें सौंप दी। फौज से संबंधित बुलेटिन प्रसारित करने का दायित्व शाही को मिला।'..ये आजाद हिन्द रेडियो है, अब वाईपी शाही से बुलेटिन सुनिए।' ये शब्द उस वक्त रेडियो में गूंजते थे। आजादी मिलने के बाद लंबा वक्त शाही ने एकाकी जीवन राजधानी लखनऊ के अपने हैदराबाद कालोनी में ही गुजारा। वे अच्छे संगीतज्ञ और विचारक भी थे। सन् 2011 में उन्होंने अंतिम सांस ली। उनके पौत्र अभिषेक शाही बताते हैं कि बाबा जी ने कभी खुद को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में प्रस्तुत ही नहीं किया। वे कभी भी प्रचार माध्यमों में नहीं आना चाहते थे। हालांकि जिले के राजेश्वर सिंह लिखित 'सुलतानपुर का इतिहास' पुस्तक में उनके योगदान का भरपूर जिक्र मिलता है।

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