Friday, 15 June 2018

श्रीमद्भागवत कथा

  श्रीमद्भागवत एक ज्ञान यज्ञ है। यह मानवीय जीवन को रसमय बना देता है। भगवन् कष्ष्ण की अद्भूत लीलाओं का वर्णन इसमें समाहित है। भव-सागर से पार पाने के लिये श्रीमद्भागवत कथा एक सुन्दर सेतु है। श्रीमद्भागवत कथा सुनने से जीवन धन्य-धन्य हो जाता है। इस पुराण में 18 स्कन्ध एवं 335 अध्याय हैं। ब्यास जी ने 17 पुराणों की रचना कर ली लेकिन श्रीमद्भागवत कथा लिखने पर ही उन्हें सन्तोष हुआ। फिर ब्यास जी ने अपने पुत्र शुकदेव जी को श्रीमद्भागवत पढ़ायी, तब शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को जिन्हें सात दिन में मरने का श्राप मिला, उन्हें सात दिनों तक श्रीमद्भागवत की कथा सुनायी। जिससे राजा परीक्षित को सात दिन में मोक्ष की प्राप्ति हुयी।
     
               निगमकल्पतरोर्गलितं फलं शुकमुखादमृतं द्रवसंयुतं।
                पिवत भागवतं रसमालयं महुरसो रसिका भुविभावुकाः।।
     
  श्रीमद्भागवत वेद रूपी वष्क्षों से निकला एक पका हुआ फल है। शुकदेव जी महाराज जी के श्रीमुख के स्पर्श होने से यह पुराण अमश्तमय एवं मधुर हो गया है। इस फल में न तो छिलका है, न गुठलियाँ हैं और न ही बीज हैं। अर्थात इसमें कुछ भी त्यागने योग्य नहीं हैं सब जीवन में ग्रहण करने योग्य है। द्रवमय अमष्त से भरे इस रस का पान करने से जीवन धन्य-धन्य हो जाता है। इसलिये अधिक से अधिक श्रीमद्भागवत कथा का श्रवण करना चाहिये। जितनी ज्यादा कथा सुनेंगे उतना ही जीवन सुधरेगा।

पित्रों का उद्धार करता है श्रीमद्भागवत:-
        श्रीमद्भागवत करने से पित्रों का उद्धार हो जाता है। भागवत पुराण करवाने वाला अपना उद्धार तो करता ही है अपितु अपने सात पीढि़यों का उद्धार कर देता है। पापी से पापी व्यक्ति भी यदि सच्चे मन से श्रीमद्भागवत की कथा सुन ले तो उसके भी समस्त पाप दूर हो जाते हैं। जीवन पर्यन्त कोई पाप कर्म करता रहे और पाप कर्म करते-करते मर जाय एवं भयंकर भूत-प्रेत योनि में चला जाय, यदि उसके नाम से हम श्रीमद्भागवत कथा करवायें तो वह भी बैकुण्ठ-लोक को प्राप्त करता है। इसके पीछे एक अद्भुद एवं विचित्र कथा है।      
      
तुंगभद्रा नदी के किनारे किसी नगर में आत्मदेव नामक एक ब्राह्मण रहते थे। ब्राह्मण बड़े सुशील और सरल स्वभाव के थे। लेकिन उनकी पत्नी धुँधली बड़ी दुष्ट प्रकष्ति की थी। वह बड़ी जिद्दी, अहंकारी और लोभी थी। आत्मदेव जी के घर में कोई कमी नहीं थी। लेकिन उनकी कोई सन्तान नहीं थी। एक दिन उन्हें स्वप्न हुआ कि तुम्हारी कोई सन्तान नहीं, इसलिये तुम्हारे पित्र बड़े दुःखी हैं और तुम्हारे दिये हुये जल को गर्म श्वास से ग्रहण करते हैं। आत्मदेव जी को बड़ा दुःख हुआ। सोचने लगे कि मेरी सन्तान नहीं इसलिये पित्रों के दोष से ही मेरे घर में गाय का कोई बछड़ा नहीं होता और न ही पेड़ पर फल लगते हैं। सन्तानहीन व्यक्ति के जीवन को धिक्कार है। वह तो इह लोक-परलोक दोनों ही में दुःख पाता है। एक दिन सबकुछ छोड़-छाड़कर दुःखी मन से आत्मदेव जी सीधे वन चले गये। दो-तीन दिन तक वन में विलाप करने के पश्चात् एक दिन उन्हें वहाँ एक महात्मा के दर्शन हुये और अपने दुःख का कारण बताया। महात्मा ने आत्मदेव जी को एक फल दिया और कहा कि इस फल को अपनी पत्नी को खिला देना। इससे उसका पुत्र हो जायेगा। आत्मदेव जी घर आये और अपनी पत्नी धुँधली को वह फल दे दिया। धुँधली ने सोचा कि ये पता नहीं किस बाबा से उठा लाये हैं, फल खाके कुछ हो गया तो! चलो सन्तान हो भी जाय तो उसे पालने में कितना कष्ट उठाना पड़ता है, मैं गर्भवती हो गयी तो मेरा रूप-सौन्दर्य ही बिगड़ जायेगा। ऐसा सोचकर उसने वह फल घर में बँधी बन्ध्या गाय को खिला दिया और आत्मदेव जी से कहकर छह-सात महीने के लिये अपनी बहिन के घर चली गयी। कुछ महीनों बाद बहिन का पुत्र लेकर लौटी और आत्मदेव जी से कहा कि मेरा पुत्र हो गया। आत्मदेव जी बड़े प्रसन्न हुये और धुँधली के कहने पर उस पुत्र का नाम धुँधकारी रख दिया।
     
  इधर धुँधली ने जो फल अपनी बन्ध्या गाय को खिलाया था उस गाय ने भी एक सुन्दर से बालक को जन्म दिया। जिसका पूरा शरीर मनुष्य की तरह और गाय की तरह उसके कान थे। इसलिये आत्मदेवजी ने उसका नाम गौकर्ण रख दिया। धीरे-धीरे दोनों बालक बड़े होने लगे तो गौकर्ण पढ़-लिखकर विद्वान और ज्ञानी बना, लेकिन धुँधकारी बड़ा दुष्ट पैदा हुआ।
          
     "गौकर्ण पण्डितोज्ञानी धुँधकारीमहाखलः"
   
    गौकर्ण पढ़ने को बनारस चला गया। धुँधकारी गाँव में ही बच्चों को पीटता, वष्द्धों को परेशान करता, चोरी करता, धीरे-धीरे डाका डालने लगा और बहुत बड़ा डाकु बन गया। माँस-मदिरा का सेवन करता हुआ धुँधकारी रोज मध्य रात्रि में घर आता। आत्मदेव जी को बड़ा दुःख हुआ, पुत्र को बहुत समझाया, लेकिन पुत्र नहीं माना। बड़े दुःखी मन से आत्मदेव जी सीधे वन को चले गये

No comments:

Post a Comment